
प्रांत चंद्र दास का शव नज़दीकी तालाब से मिला था और उनके शरीर पर चोट के निशान थे.
कई हिंदुओं की तरह बनोलता दास का मानना है कि मंदिर एक सुरक्षित और पवित्र जगह है.
इसी वजह से बनोलता दास को बांग्लादेश के दक्षिण-पूर्व नोआखाली ज़िले के एक मंदिर कॉम्प्लेक्स में अपने बेटे के जाने पर कोई चिंता नहीं थी. प्रांत चंद्र दास 21 वर्ष के थे और कॉलेज में पढ़ते थे.
लेकिन तभी यह त्रासदी घटित हुई और धार्मिक उन्मादियों की सैकड़ों लोगों की भीड़ ने कथित तौर पर प्रांत चंद्र दास को पीट-पीटकर मार डाला.
बनोलता रोते हुए कहती हैं, “मेरा सबसे छोटा बेटा मेरे दिल के सबसे क़रीब था. उसकी मौत के बाद मैं अपना दिल और सब कुछ खो चुकी हूं.”
बनोलता दास अपने घर लौटने को लेकर डरी हुई हैं.
सिलसिलेवार तरीक़े से शुरू हुई हिंसा
कुमिल्ला ज़िले में एक दुर्गा पूजा पंडाल में कथित तौर पर क़ुरान रखे जाने की घटना के बाद शुरू हुए दंगों में उनके बेटे की भी मौत हुई है.
सोशल मीडिया पर अफ़वाह फैलने के चंद घंटों के अंदर ही कुमिल्ला ज़िले में दुर्गा पूजा पंडाल पर मुस्लिम कट्टरपंथियों की भीड़ ने हमले शुरू कर दिए.
इसके तुरंत बाद बांग्लादेश के बाक़ी हिस्सों में भी हिंसा शुरू हो गई. मंदिरों में तोड़फोड़ की गई और हिंदू अल्पसंख्यक समुदाय के घरों और दुकानों को आग लगा दी गई.
दो हिंदुओं समेत सात लोगों की इस हिंसा में मौत हुई है. भीड़ को क़ाबू में करने के लिए पुलिस ने कई जगहों पर आंसू गैस के गोले दागे और हवा में गोलियां भी चलाईं.
इस्कॉन सोसाइटी के मंदिर पर हमले के बाद बनोलता दास और उनके परिवार ने अपने बेटे की खोजबीन शुरू की.
एक दिन बाद उनका शव नज़दीकी तालाब के पास मिला. बनोलता कहती हैं कि उनके बेटे के शरीर पर पिटाई के निशान थे.
उन्होंने बीबीसी से कहा, “हम अपने घर वापस जाने को लेकर डरे हुए हैं और हमें डर है कि फिर हमला हो सकता है. इस समय हम मंदिर में ही रह रहे हैं.”
नोआखाली के इस्कॉन हिंदू मंदिर पर मुस्लिम दंगाइयों की भीड़ ने हमला किया था.
हिंदू समुदाय पर लगातार होते हमले
बांग्लादेश की 16.5 करोड़ लोगों की आबादी में हिंदू समुदाय की आबादी 9% से भी कम है. पहले भी हिंदुओं पर हमले होते रहे हैं और इस समुदाय के नेताओं का कहना है कि देश के इतिहास में यह उनके समुदाय के ख़िलाफ़ सबसे ख़तरनाक हिंसा है.
कुमिल्ला शहर में हिंदू त्योहार समिति के प्रमुख अचिंत दास कहते हैं, “हिंदू समुदाय पर यह योजनाबद्ध तरीक़े से किया गया हमला था.”
इसके साथ ही उन्होंने इन दावों को भी ख़ारिज किया कि हिंदू समुदाय ने क़ुरान का अपमान किया था.
मंदिर पर हमले के बाद प्रधानमंत्री शेख़ हसीना ने हिंसा की निंदा करते हुए कहा था कि साज़िशकर्ताओं को ‘ज़रूर ढूंढ निकाला जाएगा.’
उन्होंने कहा, “हम पहले भी ऐसा कर चुके हैं और भविष्य में भी ऐसा करेंगे. उनको उचित दंड का सामना करना होगा.”
उनकी चेतावनी के बावजूद बांग्लादेश के अन्य हिस्सों में भी हिंसा फैल गई थी जिसने अल्पसंख्यक समुदाय में डर और बेचैनी की स्थिति पैदा कर दी. एक समय सरकार को दंगों को नियंत्रित करने के लिए देश के 22 ज़िलों में सुरक्षाबलों को तैनात करना पड़ा.
हिंसा शुरू होने के तक़रीबन एक सप्ताह बाद उत्तरी बांग्लादेश में हिंदुओं के दर्जनों घरों को आग के हवाले कर दिया गया. दरअसल एक सोशल मीडिया पोस्ट में यह दावा किया गया था कि हिंदुओं ने मुसलमानों की एक पवित्र जगह का अपमान किया है.
धान के खेत में छिपकर बचाई जान
रंगपुर ज़िले के बीरगंज की नंदा रानी बीबीसी से कहती हैं, “जब हमने सुना की भीड़ आ रही है तो मैं अपने दो छोटे बच्चों के साथ खुद को बचाने के लिए भागी और हम धान के खेतों में छिपे हुए थे.”
“हम वहां से दंगाई भीड़ को अपने घरों को आग लगाते हुए देख सकते थे. यह पूरा विनाशकारी था. हम अब टेंटों में रह रहे हैं.”
बांग्लादेश के गृह मंत्री असद-उज़-ज़मां ख़ान का कहना है कि सैकड़ों लोगों को गिरफ़्तार किया गया है और जांच जारी है. उन्होंने पत्रकारों से कहा कि लोगों को गुमराह करने के लिए ‘अलग-अलग समय पर देश में हुई क्रूर घटनाओं के वीडियो फ़ुटेज सोशल मीडिया पर डालकर’ जानबूझकर ‘प्रोपेगेंडा’ फैलाया जा रहा है.
इस्लामी आंदोलन के नेताओं का कहना है कि किसी भी अल्पसंख्यक के ख़िलाफ़ हिंसा का वो विरोध करते हैं.
इस्लामी राजनीतिक दल बांग्लादेश ख़िलाफ़त आंदोलन के वाइस चैयरमेन मौलाना मुजीबुर रहमान हामिदी कहते हैं, “जो मंदिरों पर हमला कर रहे हैं उन्हें सज़ा होनी चाहिए. हमें शांति और सौहार्द के साथ जीना चाहिए.”
लेकिन हामिदी की तरह मुस्लिम नेता इस्लाम को बदनाम करने वालों को भी कड़ी सज़ा देने की वकालत कर रहे हैं.
1971 में पाकिस्तान से स्वतंत्रता मिलने के बाद बांग्लादेश ख़ुद की धर्मनिरपेक्षता पर गर्व करता आया है. हालांकि, इसका संविधान इस्लाम को राष्ट्रीय धर्म का दर्जा देता है और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को भी क़ायम रखता है.
लेकिन विश्लेषक इस ओर ध्यान दिलाते हैं कि कट्टरपंथी इस्लामी समूहों ने बांग्लादेश में ख़ासी शोहरत बटोरी है और 2008 से सत्ता में आवामी लीग के आने के बाद सरकार बढ़ती धार्मिक असहिष्णुता और कट्टरपंथ पर काबू पाने में नाकाम रही है.
अर्थशास्त्री देबप्रिय भट्टाचार्य कहते हैं, “राजनीतिक लाभ के लिए सरकार ने कट्टरवादी ताक़तों से समझौता किया और ख़ासतौर पर यह लोकतांत्रिक राजनीति की पृष्ठभूमि में विवशता के कारण किया गया.”
वो कहते हैं, “परिणास्वरूप, कट्टरपंथियों को शोहरत और मान्यता मिली और उनका प्रभाव बढ़ा.”
हिंसा के ख़िलाफ़ ढाका में प्रदर्शन हुए हैं.
धार्मिक हिंसा का इतिहास
साल 1947 में ब्रिटिश इंडिया का जब भारत और पाकिस्तान के रूप में बंटवारा हुआ तो तब से इस उप-महाद्वीप में धार्मिक हिंसा का एक लंबा इतिहास रहा है.
1971 में बांग्लादेश जो कि पूर्वी पाकिस्तान के नाम से जाना जाता था उसको एक ख़ूनी युद्ध के बाद पाकिस्तान से स्वतंत्रता मिली. भारत ने स्वतंत्रता के लिए बांग्लादेश युद्ध में अपना समर्थन देने के लिए अपने सुरक्षाबल वहां भेजे. दक्षिण एशिया पर आज भी बंटवारों की परछाईं मौजूद है.
बांग्लादेश के हिंदू, बुद्धिस्ट एंड क्रिस्चियन यूनिटी काउंसिल के महासचिव राणा दासगुप्ता कहते हैं, “बांग्लादेश में हिंदू समुदाय के ख़िलाफ़ हमले दशकों में व्यवस्थित तरीक़े से होने लगे हैं.”
“बांग्लादेश में हिंदू घरों और ज़मीनों को साज़िश के तहत छीनने की और उन्हें जबरन देश छुड़वाने की कोशिशें हो रही हैं.”
हिंदू समुदाय के नेताओं का कहना है कि 1947 में उनकी तादाद 30% थी जो अब 9% ही रह गई है. अधिकतर लोग भागकर भारत चले गए थे.
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि बांग्लादेश की सरकारें धार्मिक अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ लगातार हमलों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने में नाकाम रही हैं.
हिंसा के बाद हथियारबंद पुलिस हिंदू मंदिरों की रक्षा कर रही है.
एमनेस्टी इंटरनेशनल के साउथ एशिया कैंपेनर साथ हम्मादी कहते हैं, “उचित जांच की कमी न केवल एक तरह की प्रक्रिया को दिखाता है बल्कि अल्पसंख्यकों के सुरक्षा की जब बात आती है तो यह लापरवाही को भी उजागर करता है.”
“लगातार होती सांप्रदायिक हिंसा के लिए सज़ा न मिलना और प्रभावी उपायों को न उठाना अहम वजह है.”
बांग्लादेश के क़ानून मंत्री अनीसुल हक़ इस बात को ख़ारिज करते हैं कि अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ हमलों की जांच में कोई प्रगति नहीं हो रही है.
हक़ बीबीसी से कहते हैं, “सभी घटनाओं की जांच की जा रही है. इन जैसे मामलों में थोड़ा वक़्त लगता है. जितना संभव हो सकता है हम उतनी तेज़ी से जांच की रफ़्तार बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं.”
उन्होंने इन आलोचनाओं को भी ख़ारिज किया कि सरकार इस्लामी कट्टरपंथियों को शह दे रही है.
“इस तरह की कोई भी धारणा सही नहीं है. हम सभी धर्मों के सदस्यों के साथ सौहार्दपूर्ण ढंग से रहना चाहते हैं.”
कुछ लोगों का यह भी कहना है कि सीमा पार भारत में बीजेपी के शासन के बाद मुस्लिम विरोधी भावनाओं के बढ़ने की वजह से बांग्लादेश के कट्टरपंथी मुस्लिमों में ग़ुस्सा है.
बीजेपी ने बांग्लादेश के घुसपैठियों के ख़तरे का मुद्दा भी उठाया था जिसके कारण ढाका में ग़ुस्सा है और भारत के हिंदू कट्टरपंथियों का कहना है कि प्रवासियों को बांग्लादेश निर्वासित कर दिया जाना चाहिए.
अर्थशास्त्री भट्टाचार्य कहते हैं, “भारत में धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ जिस तरह का व्यव्हार हो रहा है वो दुर्भाग्यपूर्ण है. बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ अत्याचार करने के लिए भी इस बहाने का भी इस्तेमाल किया जा रहा है.”
वो कहते हैं, “लेकिन यह हर सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वो अपने सभी नागरिकों के साथ सही तरह से व्यवहार करे और उनके अधिकारों की और उनकी रक्षा करे.”
ढाका से इस रिपोर्ट में सलमान सईद ने योगदान दिया.